अलग है ज़ुबाँ इनकी, ये बेज़ुबान नहीं हैं। क्या हुआ जो ये इन्सान नहीं हैं? इन्सानों के जैसे जानवर बेवजह के मसलों में नहीं उलझते हैं। ये छोटी सी हिंदी कविता इन मासूमों की कुछ खूबियों की सराहना करने के लिए लिखी है मैंने।

अलग है ज़ुबाँ इनकी, ये बेज़ुबान नहीं हैं।

बेज़ुबान नहीं हैं

अलग है ज़ुबाँ इनकी, ये बेजुबान नहीं हैं
क्या हुआ जो ये इन्सान नहीं हैं
खोखले मसलों में ये परेशान नहीं हैं
सही है की ये इन्सान नहीं हैं

दर्द, ख़ुशी, प्यार, नफरत समझते हैं ये
इतने भी ये नादान नहीं हैं
नफरत का सिला नफरत नहीं है
दिल में इनके शैतान नहीं है

प्यार से जो तुम रोटी दोगे
पलट कर कभी न तुम पर वार करें
वफ़ा भी इनकी कसमें खाये
सही है जो ये इन्सान नहीं हैं
अलग है ज़ुबाँ इनकी, ये बेजुबान नहीं हैं।


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7 विचार “ये बेज़ुबान नहीं हैं – हिंदी कविता&rdquo पर;

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