भागता शहर
दो पहिये
चार पहिये
दैत्याकार वाहन
समय के चक्र जैसे
दौड़ते पहिये।

ये कैसी रफ़्तार है?
मुझे कुछ पल आराम चाहिए
हॅंसती, बोलती
दौड़ती, भागती भीड़ में
मेरे लिए रुक जाये
वो एक नाम चाहिए

भरी दोपहरी में
हार कर, थक कर
सहमा बैठा हूँ
बस स्टॉप की छाँव में
सहारा ढूँढ रहा हूँ

अनजाना कोई आकर
मेरा हाल पूछ ले
दे जाये फिर आस मुझे
दिलासा ढूँढ रहा हूँ।

पर डरता हूँ
हाल पूछने को
जब कँधे पर हाँथ रखेगा
खुद को रोक न पाऊँगा।
बाँध रखा है जिन्हें
बाँध के जैसे
बहने से फिर रोक न पाऊँगा।

व्यर्थ है इंतज़ार
अरबों की इस भीड़ में
मेरी क्या पहचान?
ये शहर नहीं रुकने वाला।
इसी बस स्टॉप पर
आज मैं, कल और कोई
हैरान, परेशान
ये शहर नहीं रुकने वाला।

11 विचार “भागता शहर&rdquo पर;

  1. So true, reality of present times!
    उलझी हुई सड़कों पर, दौड़ते हैं खोये हुए सपनों की तलाश में
    एक दूसरे से आँखों में आँखें मिलाने का समय नहीं,
    बदल चुकी है रिति-रिवाज़ की
    प्यार इज़हार की
    सदियों पुरानी कहानियाँ।

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