कविता सुनें:

दया, घृणा
हिकारत
परोपकार
बस अब बहुत हुआ

न मुझे तू शर्मिंदा कर
न कर कोई उपकार
बस अब बहुत हुआ।  
हाँ मेरा घर छोटा है
खिड़की पर फटी चादर का पर्दा
बारिश में छत टपकती है
सूखी रोटी खा लेता हूँ
भूखा मैं क्या न करता ?

अपनी लम्बी काली गाड़ी में बैठ
क्यों तू मेरे घर में झाँके?
ओह तेरी इन नज़रों से मैं
कैसे छुपाऊँ अपना सँसार
बस अब बहुत हुआ।

हाँथ बढ़ा चला आता है तू
त्यौहार हो या श्राद्ध हो
तली पूरियां, बासमती का पुलाव
जलेबी, मीठा पकवान
धर देता है मेरे बालक के हाँथ पर
वो बेचारा मजबूर
तू मगरूर इंसान

तेरे पुण्य का घड़ा भर
कमज़ोर होता है
मेरा परिवार
बस अब बहुत हुआ।

7 विचार “बस अब बहुत हुआ&rdquo पर;

Leave a Reply