झुमकी आज बहुत खू़बसूरत दिख रही है । रोज़ दिखती है । कोई पूछ कर देखे । झुमकी से या टूटे पैर वाली पुरानी मेज़ पर रखे आईने से।
शाम हो चली है। आज झुमकी ने दोपहर की नींद पूरी कर टीवी पर पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने देखे थे। रंगीन साड़ियों में नायिकाओं को नाचते गाते देख उसे भी सजने सँवरने का एक बहाना मिल गया। कहीं जाना तो है नही। फिर भी सजने सँवरने का बहाना मिल गया।
बुधिया आएगा तो क्या सोचेगा? क्या वो भी देव साहेब के जैसे शायराना अंदाज़ में उसकी ख़ूबसूरती पे कोई गीत गुनगुनाएगा? या शाहरुख़ के जैसे झुमकी को अपनी बाहों में समेट लेगा। एक मीठी सी सनसनी दौड़ जाती है उसके बदन में।
खिड़की से बाहर देखती झुमकी की सोच को कुकर की सीटी ने भंग किया। आलू गोभी की रसदार सब्ज़ी बन कर तैयार थी। बुधिया आएगा तो गरमा गरम रोटियां बना लेगी झुमकी।
दरवाज़ा खोल कर बुधिया ने खाने का डब्बा मेज़ पर पटक दिया। बिना कुछ कहे बिस्तर पर बैठ थोड़ी देर शांत दीवार को देखता रहा। झुमकी उसके सामने खड़ी हुई। बुधिया की नज़र झुमकी के पार दीवार पे टिकी थी। खूबसूरत झुमकी के पास कहने को कुछ न था। रोज़ के जैसे उसने टीवी चला कर रिमोट बुधिया के पास बिस्तर पे रख दिया।
रोटियां बनाते बनाते किचन की ताप में धीरे धीरे झुमकी की खूबसूरती पसीने के साथ बह चुकी थी। जब मन की टूटी उम्मीदें धीरे धीरे खामोश आक्रोश में बदल जाती हैं तो तन की खूबसूरती भी साथ छोड़ देती है।
बुधिया के प्रेम का रस आलू गोभी की रसदार सब्ज़ी के जैसे बेस्वाद हो चला था। महानगर की छोटी सी चाल के उस कमरे में, ये रात भी आयी और चली गयी। झुमकी के बदन और मन को तोड़ कर।