आम इंसान अपनी रोज़ी रोटी और घर परिवार में उलझा रह जाता है। देश और समाज के प्रति उसकी ज़िम्मेदारियों का एहसास स्वतः हीं दब दब कर अपनी पहचान खो देता है। लेकिन वक़्त और हालातों की पुकार उस एहसास को जगाने की निरंतर कोशिश करते हैं। ये कविता अपनी सांसारिक बेहोशी से जागे एक आम इंसान के द्वन्द की ललकार है।