प्रिया एक बेहद चुलबुली लड़की है। २१ साल की, माँ-पापा की इकलौती लाडली बेटी। उसकी बातों और शरारतों से घर हरदम चहकता रहता है।किन्तु आज वो गुमसुम क्यों है ?
पिता का अनकहा प्रेम
जब से ऑफिस से घर वापस आयी है, अपने कमरे में चुपचाप बैठी है। हरदिन के जैसे माँ से कोई बात नहीं की। न हीं कुछ खाने की फरमाइश की उसने।उसका ये बदला हुआ व्यवहार माँ-पापा से छुपा नहीं था।
दोनों बाहर के कमरे में चाय पे यही चर्चा कर रहे थे। पापा ने कहा की आज ऑफिस से लौटते समय भी प्रिया एकदम गुमसुम थी।घर से ऑफिस ले जाना और वापस ले आना पापा की ज़िम्मेदारी थी। इकलौती, लाडली बेटी को बस में धक्के क्यों खाने दिया जाए?
पापा आराम से अपने स्कूटर पे उसे शान से ले जाया करते थे।प्रिया के दोस्त अक्सर इस बात पर उसकी टाँग खींचने से बाज़ नहीं आते थे। पर पापा कहाँ मानने वाले थे।पापा ने माँ को इशारा किया की वो जाये और प्रिया का हाल पूछ आये।
प्रिया अपने कमरे में खिड़की के पास खड़ी एकटक शून्य में देख रही थी। माँ ने टोका तो उसका ध्यान भंग हुआ।झट से माँ से लिपट गयी। माँ ने सर पे हाथ फेर प्यार से पुछा - “क्या बात है? ऑफिस में किसी ने कुछ कहा क्या?”
कुछ पल के मौन के बाद प्रिया बिस्तर के किनारे बैठ बोली - “आज एक बहुत अच्छा अवसर मिला है माँ! मुंबई की एक बहुत बड़ी कम्पनी में मेरी नौकरी लगी है”माँ अचम्भे में थी। ऐसी तो कोई बात पहले कभी नहीं बताई थी प्रिया ने। “ऐसे अचानक कैसे? तू कब मिली उनसे?”
“माँ, मैंने पिछले महीने नौकरी का आवेदन दिया था और फिर उसके बाद फ़ोन पर मेरा साक्षात्कार हुआ। आज नौकरी पक्की होने की खबर आयी है और अगले महीने की ५ तारीख को मुझे मुंबई में उनके दफ्तर जाना है। “सब कुछ बहुत जल्दी - जल्दी हो गया। माँ कुछ समझ न पा रही थी। थोड़ा संभल के पूछा - “इसमें उदास होने वाली बात क्या है?”
प्रिया ने उत्तर दिया - “माँ, नौकरी तो बहुत अच्छी है। मुंबई की बहुत नामी कम्पनी है। पगार यहाँ से डेढ़-गुना। "“तो परेशानी क्या है?”प्रिया ने झट उत्तर दिया - “माँ, मुझे मुंबई में रहना होगा। पापा ने कभी मोहल्ले के बाहर तक अकेले जाने नहीं दिया। मैं कैसे हाँ बोलूँ उनको?”
माँ के पास भी इसका कोई उत्तर न था।वो गयी थी प्रिया का चुलबुलापन वापस लाने। खुद ही गुमसुम वापस आई।पिता ने भी कमरे के बाहर खड़े होकर माँ-बेटी की बातचीत सुन ली थी। आज परिवार में सभी उदास और गुमसुम थे।
अगली सुबह प्रिया थोड़ी देर से उठी। शनिवार था सो दफ्तर नहीं जाना था। बाहर के कमरे में माँ-पापा चाय पी रहे थे।प्रिया चुपचाप माँ के पास बैठ गयी। माँ से इशारे में जानना चाहा की पापा अभी तक दफ्तर क्यों नहीं गये।
घर की चुप्पी पापा ने तोड़ी।“अरे कुसुम! एक काम करो। नाश्ता कुछ हल्का बनाओ आज। आज हम तीनों खाना बाहर खायेंगे। "माँ ने पूछा - “क्यों लेकिन? अचानक से.....”“अरे बेटी की इतनी अच्छी नौकरी लगी है। दावत तो बनती है बाप के लिये। आज पसंद बाप की, रुपये बेटी के "
इतना कह पापा खिलखिला कर हँस पड़े। माँ-बेटी के आँसू गँगा - यमुना का रूप ले चुके थे। प्रिया झट से दौड़ कर पापा से लिपट कर रोती चली गयी।पापा ने भी चुप न कराया।कभी कभी इनका बह जाना ही अच्छा होता है।
बाप की कड़ाई, डाँट और रोक-टोक के कई मायने होते हैं। औलाद की भलाई और तरक्की में ये रोड़ा नहीं हैं। जितना औलाद बढ़ेगी, उतना ही माँ-बाप का कद।आज प्रिया ये बात समझ गयी थी। खूब दावत हुई उस दोपहर एक खुशहाल, खिलखिलाते परिवार की।
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नितेश मोहन वर्माwww.zindagiektalaash.com
आप भी कुछ मीठा खा लीजिये। हम भी उनकी खुशियों के भागीदार बनें।