आज अपने अल्फ़ाज़ों के तरकश से एक तीर लिया है मैंने। पिता पर कविता और गीत लिखा है मैंने। पिता के महत्व को शब्दों में बयान करना मुमकिन नही। एक एहसास है जो प्रस्तुत कर रहा हूँ।
माँ से कहना आसान है
माँ पर लिखना आसान है
आज पिता पर कविता लिखनी है
तो मेरी कलम भी कुछ हैरान है
पिता तो खामोश रहते हैं
पिता तो एक साया है
कुछ कहना ज़रूरी है क्या?
उनसे तो बिन कहे मैंने सब पाया है
पर चलो कुछ ख्याल समेट
पिता पर कविता लिख लूँ मैं
आज पिता का जन्मदिन आया है
पिता पर कविता – “पापा कहते थे”
पापा कहते थे
इस दुनिया में
बेटा, पैसा ही मर्द है
मुस्कुराते नकाब में
अपनेपन के लिबास में
थोड़ा हो या ज़्यादा
हर इंसान खुदगर्ज़ है
पापा कहते थे
बेटा, पैसा ही मर्द है
गरीबी अभिशाप है
शून्य तेरी पहचान है
समर्थ है यदि तू धनवान है
धनवान है तो ही बलवान है
निर्धन तो निर्जन ही रहता
धन की खनखन हमदर्द है
पापा कहते थे
बेटा, पैसा ही मर्द है
तलवार की धार का पैसा खरीददार है
बाज़ू भी, और इरादे भी बिकते वहीं
जहां धनवान का बाज़ार है
तो जेबें टटोल, देख कितनी तेरी मर्दानगी
खाली जेब तो खाली पेट
लाइलाज ये मर्ज़ है
पापा कहते थे
बेटा, पैसा ही मर्द है।
सही लिखा आपने, पिता पर लिखना हो तो कलम हैरान हो जाती है | पर एक बार लिखने लगो तो कहाँ रुकना है यह भी नहीं जानती |
सुन्दर लिखते हैं आप !
धन्यवाद रविंद्र जी। पढ़ने के लिए बहुत शुक्रिया। आपके पोस्ट्स पढता रहता हूँ।
Mere Posts padhne ke liye dhanywaad!